सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और सूचना
क्रांति, अभिव्यक्ति की आजादी , कानून को सही रखने की
जिम्मेदारी और सत्ता को सुरक्षित बनाए रखने की मजबूरी के बीच भारतीय लोकतंत्र
बार-बार परीक्षा के दौर से गुजर रहा है । वैसे तो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमेशा से
ही संकट रहा है, परन्तु अब ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया के
जरिए हर आम इन्सान को सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने का अधिकार और तरीका मिल गया
है | जिससे सरकार की हालत कुछ वैसी ही हो गई है, जैसे जुहू बीच पर किसी गँवई पुलिसवाले के पहुँचने पर होती है ।
घुमने वालों की मौजूदगी पर उसे ऐतराज है और उनकी 'आजादी'
पर भी । यदि उनका बस चले तो सबको वहाँ से भगा दें, मगर वैसा करने की भी आजादी नहीं है । वह मन में गरियाते हुए लौट जाता है,
पर उसे अंत तक समझ में नहीं आता कि यह हो क्या रहा है।
भारत जैसे बृहद लोकतंत्र में
स्वतंत्र अभिव्यक्ति के कारण असुरक्षा की भावना है । जहाँ एक तरफ सिनेमा, किताब, भाषण, विचार-विमर्श इत्यादि के विषय में कुछ
ज्यादा ही कड़ाई दिखाई जा रही है, तो वहीं सोशल मीडिया के मामले में भी सत्ता विरोधी
बात पर धर-पकड़ हो रही है | वैसे भी युवा वर्ग के लिए सोशल मीडिया उनके व्यस्त जीवन
शैली का एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है । वह युवा वर्ग जो भारत की आबादी में आधे से
भी ज्यादा अपनी हिस्सेदारी रखता है । लेकिन उनकी सहज अभिव्यक्ति पर सरकार ,
ध्यान नहीं दे रही है। यह वही पीढ़ी है जो भारत का भविष्य है , आज
किसी विचारों को मानना या न मानना इनके सोच पर निर्भर हैं तो यही उनकी सही मायने
में आज़ादी है | पर उनकी अभिव्यक्ति को दबाना या नज़रन्दाज़ करना एक गंभीर वैचारिक
मतभेद का कारण हो सकता है |
आज अगर यह कहें कि अभिव्यक्ति
की आजादी केवल अपराधियों, सांप्रदायिक तत्वों, अतिवादियों, उग्रवादियों, कट्टरपंथियों
आदि के लिए ही है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वह लोग किसी भी फिल्म का
प्रदर्शन रोक सकते हैं, किसी भी किताब को जला सकते हैं ,
किसी भी व्यक्ति के घर में आग लगा सकते हैं , किसी भी वक्ता को अपने ही शहर और घर में
घुसने से रोक सकते हैं । सही मायने में अभिव्यक्ति की आज़ादी और सम्पूर्ण आज़ादी
इन्हीं लोंगों के लिए है | सच्चे लोकतंत्र के सज़ग प्रहरी यही लोग हैं क्योंकी किसी
के द्वारा थोपे गए विचार का विरोध करना मतलब देशद्रोही बन जाना है ...
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