Thursday 8 December 2016

इंसानियत को खोज रहा हूँ

बाबू! कुछ दे दो भगवान तुम्हारा भला करेगा | कुछ पैसे देते हुए मैंने उस बूढी महिला से पूछा, दादी जी ! आपको कोई देखनेवाला नहीं है क्या ? जवाब मिला, है तो कई, पर सबने ठुकरा दिया| उनकी बात सुन कर मेरा मन कई साल पीछे चला गया | चिलचिलाती धुप थी | धुल उड़ रही थी | लोगों ने सिर ढक रखे थे | एक बूढी महिला सड़क पर पड़ी थी | बायीं टांग और बायाँ हाथ टुटा था | चेहरा धंसा था, आँखों में आंसू थे | कपड़े के नाम पर किसी की शर्ट उन्होंने पहन रखी थी | वह भी मटमैली हो चुकी थी | उस समय हम विद्यार्थी थे | पास के ही कॉलेज में पढ़तें थे | उस महिला का मदद का ख्याल हमारे दिमाग में आया | कुछ दोस्त इकट्ठा हो गए | बूढी महिला के बारे में लोगों से पता किया |

मालूम हुआ की इनकी बेटियों ने ही इन्हें घर से बहार फेंक दिया है | हमें उन्हें घर में वापस रखने का आग्रह किया, पर वें नहीं मानीं, अंत में उन्ही के घर के बाहर एक आशियाना बनाने पर उन्होंने सहमती दे दी | हममें से कोई लकड़ी का टुकड़ा लेकर आया, तो कोई बांस ले आया, कोई अपने कमरे से चादर ले आया, तो कोई मच्छरदानी लेकर आ गया | लड़कियों ने सिल कर उनके लिए बेड तैयार कर दिया | उन्हें नहलाया, उन्हें अपने कपड़े पहनाए, महिला पहले से बेहतर अवस्था में दिखने लगी | मदद करनेवालों विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने लगी | मैं हर सुबह लाइब्रेरी जाते समय उनके लिए चार-ब्रेड लाने लगा और उन्हें खिला कर ही जाता था | कुछ लड़कियां होस्टल से लंच ले आती थी | कुछ विद्यार्थी शाम को उनके लिए जूस और फल ले जाते थे, जबकि कुछ लड़के रात में उन्हें खाना दे कर मच्छरदानी लगा देते थे |

यह रोज का नियम बन गया था | हमारे काम को लोग कौतूहल भरी नजरों से देखते जरुर थे, लेकिन न तो उनके घर से कोई मदद करने आया और न ही आस – पड़ोस से | इस बीच हमने उनके लिए वृद्धाश्रम खोजना भी जारी रखा | कोई मदर टेरेसा, तो कोई किसी अन्य महापुरुष के नाम पर थे, लेकिन जब उन्हें रखने की बारी आई, तो कोई भी बड़ी रकम लिए बिना उन्हें रखने को राजी नहीं हुआ| करीब 25 दिनों बाद महिला की तबीयत बिगड़ी | हमने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया, फिर वापस लाए | उन्हें ग्लूकोज चढ़ाना जारी रखा | सेवा में लगे रहे, पर अगली सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली | हममें से हर कोई रो पड़ा, कोई वहीँ पर, तो कोई क्लास रूम में, तो कोई कॉलेज की छत पर आकर | लगा कोई अपना बिछड़ गया | उन्होंने आँखें क्या मुंदी, जगह – जगह से रिश्तेदारों की फ़ौज जमा हो गई | जिन्दा रहने पर पीने का पानी तक नहीं पूछा, पर मरने के बाद उन्हें दूध से नहलाया, नए कपड़े पहनाये | समाज का यह रूप देख मैं अन्दर से हिल गया | अब मैं एक खोज पर हूँ | इंसानियत की, खोज | अब तक मिली नहीं, आपको मिले, तो जरुर सूचित कीजिएगा |   


                              लेखक अनिल कुमार -PR Professionals 

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